Sunday, April 4, 2010

फिरदौस जी अगर आप सवाल कर रही हैं, तो कम-अज़-कम जवाब देने का अधिकार तो दीजिये

फिरदौस जी अगर आप मुझसे सवाल कर रही हैं, तो कम से कम जवाब देने का अधिकार तो दीजिये. जब आपने मेरे सवाल कुबूल नहीं किए तभी मैंने उस लेख के ज़रिये सवाल लिखे थे. पर आपने उसमें से एक भी सवाल का जवाब देने की जगह अपने ब्लॉग पर मेरा मज़ाक बनाना शुरू कर दिया? क्या यही सलीका होता है, गंभीर पत्रकारिता का??? वैसे भी यह मेरा शौक नहीं है.

अगर आपको मेरा लेख बुरा लगा तो, मैं आगे से नहीं लिखूंगी. परन्तु आपको मेरे सवालो पर जवाब ना सही कम-अज़-कम उन पर सोचना तो चाहिए.

मैंने बुरखे की नहीं बल्कि परदे या हिजाब की हिमायत की है. ना ही मैंने यह कहा कि साड़ी या सलवार कमीज़ पहनने वाली औरतों का जिस्म ढका नहीं होता. हाँ कपडे ढीले-ढाले तथा पारदर्शी नहीं होने चाहिएं और सर ऐसी तरह ढका होना चाहिए कि सर के बाल नज़र ना आएं.

जहाँ तक बात मेरे ब्लॉग पर लगे फोटो के लिबास की है, तो मैंने कल ही किसी को (शायद डॉ. अनवर जमाल के लेख में) जवाब देते हुए बताया था कि यह फोटो मेरी नहीं है. क्योंकि बात हिजाब की चल रही थी, इसलिए मैंने यह फोटो लगाना ही मुनासिब समझा. क्या आप यह सिद्ध कर सकती हैं कि यह लिबास इस्लाम के खिलाफ है? आप कुरान या सहीह हदीस में से किसी एक का भी सहारा लेकर यह सिद्ध कर दीजिये की यह लिबास इस्लाम के हिसाब से गलत है.

असल में कम-से-कम इतना परदे वाला लिबास हिजाब कहलाता है. अल्लाह कुरआन में फरमाता है:

[सूर: al-ahzab, 33:59] ऐ नबी! अपनी पत्नियों और बेटियों और इमानवाली स्त्रियों से कहदो कि वह अपने ऊपर अपनी चादरों का कुछ हिस्सा लटका लिया करें. इससे इस बात की ज्यादा संभावना है कि वह पहचान ली जाएँ और सताई न जाएँ. अल्लाह बड़ा माफ़ करने वाला, रहम वाला है.

इसके अलावा यह आयत तो मैं पहले भी अपने लेख में लिख चुकी हूँ.

[सुर: अन-नूर, 24:30] इमान वाले पुरुषों से कह दो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपनी शर्म गाहों की हिफाज़त करें. यही उनके लिए ज्यादा अच्छी बात है. अल्लाह को उसकी पूरी खबर रहती है, जो कुछ वे किया करते हैं.
[31] और ईमान वाली औरतों से कह दो कि वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखे और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें. और अपने श्रृंगार ज़ाहिर न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है (अर्थात महरम) और अपने सीनों पर दुपट्टे डाले रहे और अपना श्रृंगार किसी पर ज़ाहिर न करे सिवाह अपने शौहर के या अपने पिता के या अपने शौहर के पिता के या अपने बेटों के अपने पति के बेटों के या अपने भाइयों के या अपने भतीजों के या अपने भानजो के या अपने मेल-जोल की औरतों के या जो उनकी अपनी मिलकियत में हो उनके, या उन गुलाम पुरुषों के जो उस हालात को पार कर चुके हों जिसमें स्त्री की ज़रूरत होती है, या उन बच्चो के जो औरतों के परदे की बातों को ना जानते हों. और औरतों अपने पांव ज़मीन पर मरकर न चलें कि अपना जो श्रृंगार छिपा रखा हो, वह मालूम हो जाए. ऐ ईमान वालो! तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, ताकि तुम्हे सफलता प्राप्त हो.

सबसे बड़ा सवाल तो यह है, अगर सामाजिक एतबार से यह लिबास दुरुस्त है (यानि किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचता है) तो आप इस पर सवाल उठाने वाली कौन है? आप तो स्वयं वही काम कर रही हैं, जिसके खिलाफ कल लिख रही थी. और जवाब में मैंने कहा था, कि अगर मैं खुद पर्दा करना चाहती हूँ तो कानून कौन होता है, मुझे रोकने वाला. सुरक्षा का सवाल एक मज़बूरी की बात है और मेरा मज़हब मज़बूरी के बीच में आड़े नहीं आता है. मज़बूरी में तो सूअर जैसे गलीच जानवर का मांस खाने की भी इजाज़त है.

परदे के तहत मुंह ढकने या दीगर इस्लामिक रिवायात पर अमल करने के मुताल्लिक मैंने पहले ही लिखा है, कि यह तो रब और बन्दे के बीच प्यार की बात है, जितना ज्यादा प्यार उतना अधिक अमल. मैंने यह भी कल लिखा था, कि मैं अपने मज़हब पर कितना ज्यादा चलती हूँ, इसका हिसाब सिर्फ मेरे शोहर या मेरा रब (अगर औरत शादी-शुदा नहीं है तो पिता) ही मांग सकते हैं. हाँ अगर मेरे द्वारा अगर किसी को नुक्सान या जायज़ परेशानी हो रही है, तो ज़रूर कानून मुझे रोक सकता है.

मैं नहीं समझती की किसी भी औरत के हिजाब पहनने से किसी को भी कोई परेशानी होगी. हाँ उनको ज़रूर परेशानी हो सकती है, जो औरत को ढका हुआ देखना पसंद नहीं करते. जो औरतों के बदन को नंगा देखना चाहते हैं. और ऐसे गंदे दिमाग वाले पुरुषो को महत्त्व देना कोई ज़रूरी नहीं है. बल्कि ऐसे लोगो का ही असल में विरोध होना चाहिए. आज बड़ी-बड़ी कंपनिया अपने प्रोडक्ट्स को बेचने के लिए औरतों के नंगे बदन का इस्तेमाल करते हैं, आपने उनका विरोध क्यों नहीं किया?

दर-असल परदे पर बैन तो सिर्फ एक कोशिश है, इस्लाम मज़हब पर हमला करना की और इसलिए मुसलमान इसके खिलाफ खड़े हो रहे हैं. क्या कोई अगर आपकी आस्था पर, आपके धर्म पर हमला करेगा तो क्या आप चुप बैठेंगी????

जो उदहारण आपने दिए, ऐसे black sheep तो दुनिया के हर समाज में हैं. लेकिन उन्हें उनके मज़हब के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए. अभी कुछ दिन पहले ही हिन्दू समाज से जुड़े कुछ साधुओं की करतूतें दुनिया के सामने आई, तो क्या यह कहना सही होगा कि हिन्दू समाज ऐसा है???? हरगिज़ नहीं!

ऐसी हरकत करने वालो के खिलाफ ज़रूर आवाज़ उठानी चाहिए. परन्तु उनके मज़हब पर ऊँगली उठाना सस्ती लोकप्रियता चाहने के अलावा कुछ भी नहीं है.

मज़हब को उसके मानने वाले इंसानों से नहीं बल्कि उसको दुनिया के सामने रखने वाले संस्थापको या उसकी किताबों को देख कर पहचाना जाना चाहिए.

क्या आप मुझे किसी भी ऐसे फतवे के कापी दिखाएंगी जिसमें किसी भी बलात्कारी का समर्थन किया गया हो???? इस्लाम में बलात्कारी की सजा सजाए-मौत है और हिंदुस्तान में भी ऐसों के लिए बड़ी सजा है.

पर्दा मेरा हक है - Anjum Sheikh

मैं एक साधारण सी गृहणी हूँ. हिंदुस्तान से बाहर रहती हूँ और आजकल अपने प्यारे वतन आई हुई हूँ. कोई लेखक नहीं हूँ, मगर फिरदौस जी के लेख ने मुझे मजबूर किया यहाँ लिखने के लिए.

वह कहती हैं कि परदे पर बैन महिलाओं की जीत है और मैं कहती हूँ की यह मेरा हक है?

आखिर कैसे कोई सरकार मेरे हक को छीन सकती है? यह मसअला तो मेरे और मेरे खुदा की बीच का है. यह तो एक इंसान का अपने रब के लिए प्यार है, आखिर इसका अंदाज़ा कोई सरकार कैसे लगा सकती है????

मैं अपने खुदा के आदेशों को मानु अथवा नहीं, इसके बीच में सरकार कहाँ से आ गई?

अगर कोई सरकार किसी महिला पर ज़बरदस्ती पर्दा करने के खिलाफ कानून बनती तो यकीनन मैं उस फैसले का समर्थन करती. और फिरदौस जी के समर्थन पर खुश होती. परन्तु यहाँ तो किसी देश की सरकार के द्वारा हम औरतों के हक का हनन किया जा रहा है, और एक औरत (फिरदौस जी) बड़े फख्र के साथ उसका समर्थन कर रही हैं. अगर ऐसा कोई कानून मेरे देश में होता अथवा वहां जहाँ मैं रहती हूँ तो एक महिला होने के नाते मैं इसके खिलाफ आखिरी साँस तक क़ानूनी लड़ाई लडती. परन्तु मुझे रंज हुआ कि यहाँ एक महिला ही महिलाओं के हक के खिलाफ बन रहे कानून का पक्ष ले रही है.

यहाँ जो बुरखे का ज़िक्र सभी लोग कर रहे हैं, इस्लाम में उसका कोई महत्त्व नहीं है. असल लफ्ज़ 'हिजाब' है और हिजाब का मतलब अलग-अलग परिस्तिथियों के हिसाब से अलग-अलग होता है. औरतों के लिए महरम के सामने का हिजाब अपने बदन को ढकना है, वहीँ ग़ैर-महरम रिश्तेदारों के सामने हिजाब का मतलब मुंह और हाथ के पंजे छोड़ कर पुरे बदन को ढंकना है.

अल्लाह ने कुरआन में मर्दों और औरतों को अपनी आंख्ने नीची करने, और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करने का हुक्म दिया है. वहीँ औरतों को ऐसे कपडे पेहेन्ने का हुक्म दिया है, जिसे उनका बदन अच्छी तरह से ढका रहे. अल्लाह ने कुरआन में फ़रमाया है -

[सुर: 24, अन-नूर, 30] इमान वाले पुरुषों से कह दो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपनी शर्म गाहों की हिफाज़त करें. यही उनके लिए ज्यादा अच्छी बात है. अल्लाह को उसकी पूरी खबर रहती है, जो कुछ वे किया करते हैं.

[31] और ईमान वाली औरतों से कह दो कि वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखे और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें. और अपने श्रृंगार ज़ाहिर न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है (अर्थात महरम) और अपने सीनों पर दुपट्टे डाले रहे और अपना श्रृंगार किसी पर ज़ाहिर न करे सिवाह अपने शौहर के या अपने पिता के या अपने शौहर के पिता के या अपने बेटों के अपने पति के बेटों के या अपने भाइयों के या अपने भतीजों के या अपने भानजो के या अपने मेल-जोल की औरतों के या जो उनकी अपनी मिलकियत में हो उनके, या उन गुलाम पुरुषों के जो उस हालात को पार कर चुके हों जिसमें स्त्री की ज़रूरत होती है, या उन बच्चो के जो औरतों के परदे की बातों को ना जानते हों. और औरतों अपने पांव ज़मीन पर मरकर न चलें कि अपना जो श्रृंगार छिपा रखा हो, वह मालूम हो जाए. ऐ ईमान वालो! तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, ताकि तुम्हे सफलता प्राप्त हो.

मैंने उनके लेख पर भी कमेंट्स लिखा था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया. पता नहीं क्यों? क्योंकि वहां मैंने प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद (सल.) के खिलाफ बहुत ही गंदे कमेंट्स देखे हैं, जिन्हें फिरदौस जी ने कुबूल कर लिया और मेरे सवालों को क़ुबूल नहीं किया. आखिर क्यों? मैंने उनको जानती नहीं हूँ, पर उनके इस फैसले से मुझे शक होता है, क्या वह मुसलमान है? और मुसलमान छोडो, क्या वह एक इन्साफ पसंद महिला हैं???